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सर्वपल्ली राधाकृष्णन / शिक्षक दिन

   

सर्वपल्ली राधाकृष्णन

*🍀सर्वपल्ली राधाकृष्णन*🍀


हे भारताचे माजी राष्ट्रपती व नामांकित शिक्षणतज्‍ज्ञ हाते. डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन

(सप्टेंबर ५, इ.स. १८८८:तिरुत्तनी, तमिळनाडू - १७ एप्रिल १९७५)

 हे भारताचे भारताचे पहिले उपराष्ट्रपती आणि दुसरे राष्ट्रपती होते. त्यांच्या कार्यकाळ (इ.स. १९५२ - इ.स. १९६२) असा आहे. त्यांचा जन्म दक्षिण भारतात तिरुत्तनी या ठिकाणी झाला. हे गाव चेन्नई (मद्रास) शहरापासून ईशान्येला ६४ किमी अंतरावर आहे. राधाकृषणन यांचा ५ सप्टेंबर हा जन्मदिवस भारतात शिक्षक-दिन म्हणून साजरा केला जातो.

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

२ रे भारतीय राष्ट्रपती

कार्यकाळ
मे १३, इ.स. १९६२ – मे १३, इ.स. १९६७

मागील राजेंद्र प्रसाद

पुढील झाकीर हुसेन

भारतीय उपराष्ट्रपती

कार्यकाळ
१९५२ – १९६२


जन्म सप्टेंबर ५, इ.स. १८८८
तिरुत्तनी, तमिळनाडू तील एक छोटे गाव, दक्षिण भारत

मृत्यू एप्रिल १७, इ.स. १९७५

राजकीय पक्ष भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस

पत्नी सिवाकामुअम्मा

अपत्ये पाच मुली व एक पुत्र, सर्वपल्ली गोपाल

व्यवसाय राजनितीज्ञ, तत्त्वज्ञ, प्राध्यापक

धर्म वेदान्त (हिंदू)

पाश्चात्त्य जगताला भारतीय चिद्‌वादाचा तात्त्विक परिचय करून देणारा भारतावरील ब्रिटिश सत्ताकाळातला महत्वाचा विचारवंत म्हणून राधाकृष्णन यांना ओळखले जाते भारतीय तत्त्वज्ञानाचे भाष्यकार म्हणून ते ऑक्सफर्डमध्ये नावाजले गेले. त्यांच्या कार्याचे महत्त्व जाणून ऑक्सफर्ड विद्यापीठानेत्यांच्या नावाने 'राधाकृष्णन मेमोरियल बिक्वेस्ट' हा पुरस्कार ठेवला आहे.

राधाकृष्णन यांच्या जीवनात तीन प्रमुख प्रश्न होते. पहिला प्रश्न असा की, नीतिमान पण चिकित्सक, विज्ञानोन्मुख पण अध्यात्मप्रवण असा नवा माणूस कसा निर्माण करता येईल? या दृष्टीने शिक्षणाचा काही उपयोग होऊ शकेल का? दुसरा प्रश्न असा होता की, प्राचीन भारतीय तत्त्वचिंतन सर्व जगाला आधुनिक भाषाशैलीत, आधुनिक पद्धतीने कसे समजावून सांगता येईल? भारतीय तत्त्वचिंतनाचे वैभव जगाला नेमकेपणाने कसे सांगावे? कसे पटवून द्यावे? तिसरा प्रश्न असा होता की; मानव जातीचे भवितव्य घडवण्यासाठी सांस्कृतिक संचिताचा उपयोग किती?' कुणाशीही ते याच तीन प्रश्नांच्या अनुरोधाने बोलत, असे नरहर कुरुंदकर लिहितात

*🍀पुरस्कार🍀*

१९५४ :' भारतरत्‍न' पुरस्काराने सन्मानित.


*🍀राधाकृष्णन यांचे ग्रंथलेखन🍀*

An Anthology (Of Radhakrishnan Writings) (1952)

The Bhagavadgita (1948)
The Brahma Sutra: The Philosophy of Spiritual Life (1960)

The Concept of Man (1960)

The Creative Life (1975)
The Dhammapada (1950)

East and West in Religion (1933)

East and West: Some Reflections (First series in Bently Memorial Lectures) (1955)

Eastern Religions and Western Thought (1939)
Education, Politics and War (A collection of addresses) (1944)

Essentials of Psychology (1912)

The Ethics of Vedanta and Its Metaphysical Presuppositions (1908)

Fellowship of Faiths (Opening address to the Center for the Study of World Religions, Harvard) (1961)

Freedom and Culture (1936)

Gautama, the Buddha (British Academy Lectures) (1938)

Great Indians (1949)
The Heart of Hindustan (1936)

The Hindu View of Life (1926)

History of Philosophy in Eastern and Western (2 Vols.) (1952)

An Idealist View of Life (Hibbert Lectures) (1932)
India and China (1944)

Indian Philosophy - Volume I (1923)

Indian Philosophy - Volume II (1927)
A Source Book in Indian Philosophy (1957)

Contemporary Indian Philosophy (1936)

Indian Religions (1979)
Is this Peace ? (1945)
Kalki or the Future of Civilization (1929)
Living with a Purpose (1977)

Mahatma Gandhi (Essays and Reflections on his Life and Work) (1939)

On Nehru (1965)
Occasional Speeches [July 1959 - May 1962] (1963)

Occasional Speeches and Writings - Vol I (1956), Vol II (1957)
The Philosophy of Rabindranath Tagore (1918)

Radhakrishnan Reader: An Anthology (1969)

Recovery of Faith (1956)
The Reign of Religion in Contemporary Philosophy (1920)
Religion and Society (Kamala Lectures) (1947)

Religion in a Changing World (1967)
Religion in Transition (1937)

The Religion of the Spirit and World's Need: Fragments of a Confession (1952)
The Religion We Need (1928)

President Radhakrishnan's Speeches and Writings 1962-1964 (1965)

President Radhakrishnan's Speeches and Writings 1964-1967 (1969)
Towards a New World (1980)


True Knowledge (1978)
His brithday celebrate as techers dayThe Principal Upanishads (1953)


           
      
    
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*🍀डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन🍀*

5 सितम्बर 1888 – 17 अप्रैल 1975) भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति (1952 - 1962) और द्वितीय राष्ट्रपति रहे। वे भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण सन् १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया था। उनका जन्मदिन (५ सितम्बर) भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।

*🍀संक्षिप्त परिचय🍀*

सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दक्षिण भारत के तिरुत्तनि स्थान में हुआ था जो चेन्नई से 64 किमी उत्तर-पूर्व में है।

वे भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत एक प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक, उत्कृष्ट वक्ता और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। वे स्वतन्त्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे। इससे पूर्व वे उपराष्ट्रपति भी रहे। राजनीति में आने से पूर्व उन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण 40 वर्ष शिक्षक के रूप में व्यतीत किये थे। उनमें एक आदर्श शिक्षक के सारे गुण मौजूद थे। उन्होंने अपना जन्म दिन अपने व्यक्तिगत नाम से नहीं अपितु सम्पूर्ण शिक्षक बिरादरी को सम्मानित किये जाने के उद्देश्य से शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा व्यक्त की थी जिसके परिणामस्वरूप आज भी सारे देश में उनका जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रति वर्ष शिक्षक दिवस के नाम से ही मनाया जाता है।

डॉ॰ राधाकृष्णन समस्त विश्व को एक शिक्षालय मानते थे। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जाना सम्भव है। इसीलिए समस्त विश्व को एक इकाई समझकर ही शिक्षा का प्रबन्धन किया जाना चाहिये। एक बार ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि मानव की जाति एक होनी चाहिये। मानव इतिहास का सम्पूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। यह तभी सम्भव है जब समस्त देशों की नीतियों का आधार विश्व-शान्ति की स्थापना का प्रयत्न करना हो। वे अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हँसाने व गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे।

शिक्षा के क्षेत्र में डॉ॰ राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी वे शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाये तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

डॉ॰ राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतान्त्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरन्तर सीखते रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं।

वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षोँ तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिये जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये अपितु उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर भी अर्जित करना चाहिये। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है।

उनकी मृत्यु 17 अप्रैल 1975 को हुई थी।

*🍀जन्म एवं परिवार🍀*

डॉ॰ राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो तत्कालीन मद्रास से लगभग 64 कि॰ मी॰ की दूरी पर स्थित है, 5 सितम्बर 1888 को हुआ था। जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया वह एक ब्राह्मण परिवार था। उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है। राधाकृष्णन के पुरखे पहले कभी 'सर्वपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिये। इसी कारण उनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे।

डॉ॰ राधाकृष्णन एक ग़रीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण की सन्तान थे। उनके पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरास्वामी' और माता का नाम 'सीताम्मा' था। उनके पिता राजस्व विभाग में काम करते थे। उन पर बहुत बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। वीरास्वामी के पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इन सन्ततियों में दूसरा था। उनके पिता काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं हुआ।

*🍀दाम्पत्य जीवन🍀*

उस समय मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में कम उम्र में ही शादी सम्पन्न हो जाती थी और राधाकृष्णन भी उसके अपवाद नहीं रहे। 1903 में 16 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह दूर के रिश्ते की बहन 'सिवाकामू' के साथ सम्पन्न हो गया। उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी। अतः तीन वर्ष बाद ही उनकी पत्नी ने उनके साथ रहना आरम्भ किया। यद्यपि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती थीं। 1908 में राधाकृष्णन दम्पति को सन्तान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई। 1908 में ही उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद ही 1909 में उन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा। उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिये बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। 1908 में उन्होंने एम० ए० की उपाधि प्राप्त करने के लिये एक शोध लेख भी लिखा। इस समय उनकी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। इससे शास्त्रों के प्रति उनकी ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही उन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।

*🍀राजनीतिक जीवन🍀*

१९६३ में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी के साथ वार्ता करते हुए डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 - 15 अगस्त 1947 की रात्रि को उस समय किया जाये जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वे अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। क्योंकि उसके पश्चात ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।

राजनयिक कार्य संपादित करें
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा ही किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पण्डित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह सन्देह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वे एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे।

*🍀राजनयिक कार्य🍀*

सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा ही किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पण्डित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह सन्देह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वे एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मन्त्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वे उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब भी वे नियमों के दायरों में नहीं बँधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।

*🍀उपराष्ट्रपति🍀*

1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किये गये। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाये गये। बाद में पण्डित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिये काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं।

*🍀शिक्षक दिवस🍀*

हमारे देश के द्वितीय किंतु अद्वितीय राष्ट्रपति डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है।

*🍀भारत रत्न🍀*

यद्यपि उन्हें 1931 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा "सर" की उपाधि प्रदान की गयी थी लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उसका औचित्य डॉ॰ राधाकृष्णन के लिये समाप्त हो चुका था। जब वे उपराष्ट्रपति बन गये तो स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद जी ने १९५४ में उन्हें उनकी महान दार्शनिक व शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।
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*शिक्षक दिन भाषण मराठी*
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गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु …
गुरुर देवो महेश वरा …
गुरुर साक्ष्यात परब्रम्ह …
तस्मय श्री गुरुवे नमः …

अशा ध्वनीनादाने मन कित्ती प्रसन्न होते, व नकळत आपले लाडके शिक्षक दैवत नजरेसमोर उभे राहते .
मग ते कुठल्याही क्षेत्रातील असो अथवा विषयीचे असोत.
ती व्यक्ती आजन्म आपल्या लक्ष्यात राहते व आपण ती विद्या आठवून सदोदित त्यांचे ऋणी राहतो.
असा हा अविस्मरणीय दिन म्हणजे " ५ सप्टेंबर " हा दिन शिक्षक दिवस म्हणुन ओळखला जातो.
जुन्या काळातली शिक्षण संस्था हि थोडी कठोर पण शिस्तप्रिय खूप होती . आजही काही प्रमाणात तीच परीस्थिती आहे.
पण... पण ...
त्या वेळी शिक्षकांसमोर शिक्षकांचा आदर करून त्यांना वंदनीय करून त्यांचे आदर्श आज्ञारुपी मनी वसवून त्याची अंमलबजावणी होत असे. अन आताच्या आधुनिकीकरणाच्या नावाखाली शिक्षकांची व विद्यार्थी वर्गातील कित्तेक ठिकाणी होणारे त्याचे बाजारीकरण पाहून मन दु:खी होऊन जाते. व येणारी नव पिढी उद्गारते "त्यात काय एवढे आम्ही पैसा देतोय त्या बदली ते आम्हांला शिकवतात." हे सारे बदलत चाललेल्या अत्याधुनिक नवनवीन शिक्षणसंस्थेच्या नियमांमुळे व डोनेशन व्यवस्थेने दान व दाता यामुळे आदर्श शिक्षक व आदर्श विद्यार्थ्यांचे खच्चीकरण होऊन एक गर्व पालकवर्गात हि बोळावतोय अमुकअमुक ठिकाणी आमच्या पाल्यासाठी आम्ही दान करून दाता बनून नकळत बिंबवलेल्या गुरुशिष्याच्या पवित्र नात्याला असे हे मिजासखोरी गालबोट चिरडून टाकून अशा वेळी या बदलत चाललेल्या या शिक्षण संस्थेला एकच प्रश्न विचारावासा वाटतो...
जुन्याचे आधुनिकीकरण करण्यामध्ये निष्पाप गुरुशिष्याला का भरडले जातेय ?
का असे का ?
पूर्वीही बिकट परिस्थिती मधून जाऊन कित्तेक आदर्श गुरुशिष्य आजही आपल्याला पहावयास मिळतात मग आजचे चित्र असे का ?
फ़क़् शिक्षक दिन म्हणून ५ सप्टेंबर गाजावाजा करत साजरा
करण्यापेक्ष्या एका आदर्श शिक्षकाने एक आदर्श विद्यार्थी तरी आपल्या हाथून घडवावा असा पण करावा हीच खरी आजच्या काळाची गरज आहे. या दिनाचे खरे महत्व आहे.
आपणा साऱ्यांना याबाबतीत काय वाटते ते जरूर कळवावे… या परखड लेखणीमुळे कुणी दुखावले गेल्यास क्षमस्व …
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शिक्षक दिन भाषण

डॉ. राधाकृष्णन यांचा जन्मदिवस शिक्षक दिन (५ सप्टेंबर) म्हणून साजरा केला जातो. शिक्षक हा सामाजाचा निर्माण कर्ता आहे. छोट्या बालकाचे देशाचा उत्कृष्ट नागरिक म्हणून परिवर्तन करण्याचे कार्य शिक्षकाला कारायचे असते. राष्ट्रउभारणीच्या कार्यात शिक्षकाचा मोठा वाटा असतो. डॉ. राधाकृष्णन यांनी एके  ठिकाणी म्हटले आहे - "ज्या देशात निस्वार्थी निरपेक्ष व सेवावृत्तीने कोणतेही कार्य होते तेंव्हा त्या देशातील शिक्षकच खरे सन्मानाला पात्र होतात." आणि म्हणूनच त्यांच्या जन्मदिनी शिक्षकांचा सन्मान केला जातो.
           वैदिक संस्कृतीने शिक्षकाला अत्युच्च स्थान दिले आहे. गुरुला देवाच्या स्थानी मानले गेले आहे. जो देतो तो देव. गुरुंनी किंवा शिक्षकांनी कोणत्याही परतफेडीची  अपेक्षा न करता आपल्या जवळचे ज्ञान इतरांना द्यावे ही अपेक्षा समाजाची गुरु कडून असते. जे जे आपणासि ठावे |  ते  ते दुसर्‍यांस सांगावे |  शहाणे करून सोडावे सकलजन | अशी वृत्ती शिक्षकाची हवी. त्यामुळे मुळात शिक्षकाकडे माहितीचा खजिना असणे आवश्यक आहे. निदान ही माहिती कोठून मिळवायची याचे मार्गदर्शन तरी आजच्या काळात शिक्षकाला करता आले पाहिजे. आज चहुबाजूंनी माहितीचा प्रचंड स्फोट होत आहे. नवा इतिहास घडत आहे. भौगोलिक बदल होत आहेत. वैज्ञानिक शोध लागत आहेत. थोडक्यात सामाजिक ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, भौगोलिक असे परिवर्तन जागतिक पातळीवरच होत आहे. त्याची माहिती शिक्षकाने करून घेणे गरजेचे आहे. पुर्वीचा विद्यार्थी आणि आजचा विद्यार्थी यात महदंतर आहे. पूर्वी गावात शिक्षक जे सांगेल तेच खरे ज्ञान , अशी परिस्थिती होती. कोर्‍या करकरीत  मातीच्या गोळ्याला आकार देण्याचे काम आई, वडील, शिक्षक करीत असत. आज विद्यार्थ्याच्या मनाची पाटी कोरी नाही हे लक्षात घेणे गरजेचे आहे. दूरदर्शन, वर्तमानपत्रे, चित्रपट, नाटके, जाहिराती, मासिके,
संगणक, मोबाइल आणि भोवतालचा परिसर यातून विद्यार्थी शिक्षकांच्या आधीच प्रचंड माहिती मिळवतो. त्यातील कोणती माहिती विद्यार्थ्याच्या मनःपटलावर पक्की करायची व कोणती काढून टाकायची याचे भान शिक्षकाने  ठेवले पाहिजे. त्या दृष्टीने शिक्षकाचे कार्य आज खरोखरच अवघड बनत चालले आहे. एखादी पूर्णत: नवीन निर्मिती करणे जितके सोपे; तितके जुन्याची मोडतोड करून चांगले काही बनवणे  अवघड असते. म्हणून विद्यार्थ्याला माहीत नव्हते, ते सांगणे म्हणजे शिक्षण नव्हे तर त्याच्याजवळील माहितीच्या साठ्याचा त्याने कसा उपयोग करून घ्यावा यचे मार्गदर्शन करून; त्याला योग्य मार्गाने  आचरण करयला लावणे; म्हणजे शिक्षण हे आज लक्षात घेणे गरजेचे आहे .एक निकृष्ट शिक्षक 'सांगत जातो.' सामान्य शिक्षक 'स्पष्टिकरण करतो.' चांगला शिक्षक 'प्रात्यक्षिक' करतो. तर खरा शिक्षक 'प्रेरणा' देतो.  आणि म्हणून विद्यार्थ्याला प्रेरणा देण्यासाठी शिक्षकाने स्वतः उत्साहाने सतत शिकत राहिले पाहिजे शिक्षकाने विद्यार्थ्याला स्वतःला ओळखयला शिकवले पाहिजे. त्याच्यातील त्रुटी, त्याच्या क्षमता त्याला दाखवून विकासाचा मार्ग दाखवण्याचे काम शिक्षकांनी करावे. आज शिक्षक केवळ वर्गात शिकवणारी, अभ्यासक्रम  पूर्ण करणारी व्यक्ती न रहाता विद्यार्थ्यांच्या व्यकिमत्त्वाच्या सर्वांगीण विकासाला मदत करणारी जबाबदार व्यक्ती बनायला हवी. असा विद्यार्थी घडवण्याची जबबदारी पार पाडण्यासाठी प्रथम शिक्षकाने स्वतःच स्वतःला घडवावे म्हणजे स्वतः शिक्षकाने चारित्र्यवान असावे.तरच तो चारित्र्यवान विद्यार्थी घडवू शकेल.
शिक्षक म्हटले की मला आठवतात धनानंदाच्या जुलमी  राजसत्तेला उलथवून टाकणारे आर्य चाणक्य. शिक्षक म्हटले की मला आठवतात, देशप्रेमाने भारलेले; देशस्वातंत्र्याच्या ध्येयाने प्रेरीत झालेले लोकमान्य  टिळक आणि आगरकर. शिक्षक म्हटले की मला आठवतात, रंजल्या गांजल्या समाजाला उन्नती अवस्थेला नेण्यासाठी झटणारे तुकाराम , ज्ञानेश्वर, एकनाथ आणि रामदासादि संत. शिक्षक म्हटले की मला आठवतात आदिवासींच्या शिक्षणासाठी झटणार्‍या अनुताई वाघ. आज समाजाला अशा शिक्षकांची  खरोखर गरज आहे. भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, अंधश्रद्धा, दांभिकपणा, अन्याय, अत्याचार, या सार्वांची पाळेमुळे उखडून टाकण्यास समर्थपणे उभे रहाणारे, समाजाला अगदी हीन अवस्थेप्रत नेण्यास कारणीभूत ठरलेले नेते, अभिनेते व तथाकथित राजकारणी, सनदी अधिकारी यांना निर्भयपणे धडा शिकावण्यास सज्ज असलेले,  दिशाहीन बनलेल्या विद्यार्थांच्या पाठीवर प्रेमळ हात फिरवून त्यांना मार्ग दाखविणारे आणि त्यांच्यावरिल अन्यायाला विरोध करण्यास त्यांना सहकर्याचा हात देणारे, असे शिक्षक आज मी शोधते आहे. पण क्वचित कुठे असे काजवे मिणमिणताना दिसतात. बाकी सारे पैशाच्या मागे लागलेले शिक्षक व्यावसायिकच नजरेला पडताहेत. या सर्व मिणमिणत्या काजव्यांनी एकत्र येऊन समाजाची घडी व्यवस्थित बसवण्याचा प्रयत्न करावा आणि आजचा शिक्षकदिन चिंतन दिन म्हणून साजरा करून समाजात आपले स्थान सर्वात उच्च बनवण्यासाठी कार्यरत व्हावे; हीच राधाकृष्णन यांना आदरांजली ठरेल.
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